Saturday, October 24, 2015

दिल चाहता है तुझसे कभी, ना गिला करूँ,

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दिल चाहता है तुझसे कभी, ना गिला करूँ,
इस ज़िन्दगी में तुझसे यही सिलसिला करूँ |

दिन भर शराब पी के हुआ,था मैं दरबदर,
अब ढूंढता हूँ चादर ग़मों की सिला करूँ |

नफरत थी जिन दिलों में, भुलाया नहीं मुझे,
दिल में बता खुदा, उनके, कैसे खिला करूँ |

अमन-ओ-अमां के साये ही जिनसे नसीब हो,
ऐसे चमन जमी दर ज़मीं काफिला करूँ |

तन्हा है सब सफ़र और तनहा हैं रास्ते,
अब सोचता हूँ तुझसे यहाँ ही मिला करूँ |

© हर्ष महाजन

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Tuesday, October 13, 2015

बन गया मैं यूँ खुदा, सूली पे चढ़ जाने के बाद

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बन गया मैं यूँ खुदा, सूली पे चढ़ जाने के बाद,
पत्थरों में पूजे मुझको, अब सितम ढाने के बाद |
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बनके पत्थर देखता हूँ, इंतिहा बुत परस्ती की,
फूल बरसाए है दुनियां, चोट बरसाने के बाद |

मैं था पागल इश्क में, उसको न जाने क्या हुआ,
लौ बुझा दी इस दीये की, इतना समझाने के बाद |

बे-वफाई छेदती है, नर्म दिल की परतों को,
हूर रुख्सत हो कभी दिल में वो बस जाने के बाद |

इतना रोया हूँ, मगर अब, अश्क आँखों में नहीं,
पत्थरों के शहर में पत्थर हुआ आने के बाद |

हर्ष महाजन ©

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Friday, October 9, 2015

किस तरह नादानियों में हम मुहब्बत कर गए

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किस तरह नादानियों में हम मुहब्बत कर गए,
दी सजा दुनियां ने हमको सारे अरमां मर गए |
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कब तलक खारिज ये होगी हक परस्तों की ज़मीं,
महके गुलशन तो समझना कातिलों के सर गए |
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बंदिशें अब बेटियों पर, आसमां को छू रहीं,
किस तरह बदला ज़माना, बरसों पीछे घर गए |
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प्यार की, हर पाँव से, अब बेड़ियाँ कटने लगीं,
नफरतों में, जुल्फों से, अब फूल सारे झर गए |
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लुट रही अस्मत चमन की, कागज़ी घोड़े यहाँ,
और फिर हाले-वतन भी, बद से बदतर कर गए |

हर्ष महाजन ©
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Thursday, October 8, 2015

बजता हूँ बन के साज तेरे मंदिरों में अब

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बजता हूँ बन के साज तेरे मंदिरों में अब,
देता तुझे आवाज तेरे मंदिरों में अब |
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मांगी थी मैंने उम्र की संजीदगी लेकिन,
क्यों इस तरह मुहताज तेरे मंदिरों में अब |
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मन जिसका देखूं दुश्मनी की नीव पे काबिज़,
कैसे करूँ परवाज़ तेरे मंदिरों में अब |
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बस रौशनी की खोज में भटका तमाम उम्र
पगला गया, नेवाज तेरे मंदिरों में अब |
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ले चल मुझे शमशान, कोई गम जहाँ ना हो,
मेरा गया हमराज, तेरे मंदिरों में अब |
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हर्ष महाजन ©

Wednesday, October 7, 2015

खिजाँ आयी है किस्मत में बहारों का भी दम निकले

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खिजाँ आयी है किस्मत में बहारों का भी दम निकले,
जहाँ ढूँढू मैं अरमां को , वहां अरमां भी कम निकले |

हजारों गम मेरे दिल में न मुझको राख ये कर दें ,
कहीं इन सुर्ख आँखों से नदी बन के न हम निकले |


तुम्हें लिख-लिख के ख़त अक्सर कभी मैं भूल जाता था,
पुराने ख़त दराजों से जो निकले आज, नम निकले |


किसी की जुस्तजू करके कि खुद को खो चुका हूँ मैं,
उधर से बेरुखी उनकी इधर दुनिया से हम निकले |


जगह छोड़ी है जख्मों ने कहाँ अब 'हर्ष' सीने में,
कहीं इन सुर्ख ज़ख्मों से न लावा बनके गम निकले |


हर्ष महाजन

Monday, October 5, 2015

अपनी साँसे भी मुझे अपनी सी लगती ही नहीं

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अपनी साँसे भी मुझे अपनी सी लगती ही नहीं,
बात इतनी सी मगर दिल से ये निकली ही नहीं |

दिल में आतिश है बहुत ये हुस्न बे जलवा नहीं
चाहता हूँ आग उसमें पर वो जलती ही नहीं |

शाम से शब ग़ैर की ज़ुल्फ़ों में जब करने लगे
रात ऐसी जो हुई फिर सुब्ह निकली ही नहीं |

जब तलक थे हमकदम, अपना सफ़र चलता रहा,
दरिया क़तरा जब हुवा, मंज़िल वो मिलती ही नहीं |

इस कदर रोया हूँ मैं आखें भी धुंधला सी गई,
आज कुछ बूँदे भी आँखों से निकलती ही नहीं |

हर्ष महाजन