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कभी महफिलों में कभी महकशी पर,
मिला तंज मुझको मेरी हर हँसी पर ।
मुझे ज़िंदगी में जो प्यारा था सब से,
उसी ने था ढाया सितम ज़िन्दगी पर ।
किया अंजुमन से ज़ुदा बेरुख़ी से,
न रो भी सका आँसुओं की कमी पर ।
ख़ुदा जब से बिछुड़ा मैं, बिछुड़ी है जन्नत,
मिले ज़ख़्म इतने युँ रूह की ज़मी पर ।
उड़ा भी बहुत आसमाँ पे मैं इतना,
गुनाहों पे सोचा न समझा बदी पर ।
ख़ताओं को मेरी वफ़ा तू समझ के,
ख़ुदा पर्दा रखना मेरी बेबसी पर ।
चरागों पे थी ज़िन्दगी जो मुनस्सर,
वो बुझने लगे हैं मेरी बेख़ुदी पर ।
-हर्ष महाजन 'हर्ष'
122 122 122 122
मुझे प्यार की ज़िंदगी देने वाले ।
महकशी--शराब पीना
अंजुमन--महफ़िल
बदी----अंधेरा, बुराई
मुनस्सर,--depend
नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा सोमवार (08-06-2020) को 'कुछ किताबों के सफेद पन्नों पर' (चर्चा अंक-3733) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्त्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाए।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
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-रवीन्द्र सिंह यादव
शुक्रिया आदरणीय रवीन्द्र यादव जी मेरी गज़ल को चर्चा मंच पर स्थान देने हेतु ।
Deleteआभार
सुंदर रचना
ReplyDeleteशुक्रिया ओंकार जी
Deleteवाह !लाजवाब सृजन .
ReplyDeleteशुक्रिया अनीता जी
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