सभी ने देखा है अब ख़ौफ़ इक उसकी निगाहों में,
यकीनन राज़ है इसका उसी के ही गुनाहों में ।
यकीनन राज़ है इसका उसी के ही गुनाहों में ।
कभी वो दिन थे फिक्र-ए-रंज था उसको नहीं कोई,
न जाने क्या हुआ रहता है अब ग़म की पनाहों में ।
वो टूटा अपनों के ज़ख़्मों से लगता नीम पागल अब,
नहीं दिखता बचा अब कोई उसके खैर-ख़्वाहों में ।
ये नफ़रत बढ़ गयी शायद दयार-ए-इश्क़ में इतनी,
उड़ीं हैं रातों की नींदे जो उसकी ख़्वाब-गाहों में ।
तसव्वुर में भी उसके तिलमिलाहट हो रही इतनी,
असर देखा है उठता दर्द हमने उसकी आहों में ।
हर्ष महाजन 'हर्ष'
1222 1222 1222 1222
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दयार-ए- इश्क़= प्यार की दुनियाँ
ख़्वाब-गाह=शयन-कक्ष
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