घाटियों के बीच इक वो शह्र है,
आदमी रहते जहाँ अब कहर है ।
आदमी रहते जहाँ अब कहर है ।
ज़िन्दगी कब तक उन्हें रौंदेगी अब,
कब तलक ये जंग उनकी सहर है ।
सरहदों पर जंग जारी है अभी,
जानें घाटी में ये कैसी लहर है ।
लोग जो बे-घर कभी थे हो गए,
दिल में उनके जाने कितना ज़हर है ।
जाने क्यूँ छेड़ी है मैनें ये ग़ज़ल,
कैसा मंज़र जाने कैसी बह्र है ।
हर्ष महाजन 'हर्ष'
2122 2122 212
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