न जाने मुझको वो क्यूँ तलखियाँ दिखा के गया,
था बावफ़ा वो मगर मुझको क्यूँ रुला के गया ।
हुआ यकीन मुझे इस फरेबी दुनियाँ पे अब,
गुलाब बन जो मिला कांटे फिर चुभा के गया ।
शिकायतें थीं मुझे पर गिले भी उसको बहुत,
ख्याल अपनी वो ग़ज़लों में कुछ सुना के गया ।
निभा रहा था वो शिद्दत से दोस्ती को मगर,
जले चरागों को दिल से वो क्यूँ बुझा के गया ।
यकीं था इश्क़ पे जिसको गुमाँ भी मुझपे बहुत,
जुदाई के वो सनम दिन क्यूँ अब थमा के गया ।
हर्ष महाजन 'हर्ष'
1212 1122 1212 22/112
गुनगुनाइए इस धुन पर:-
◆न मुँह छुपा के जियो औऱ न सर झुका के जियो ।
बहुत खूबसूरत ग़ज़ल ।
ReplyDeleteहुआ यकीन मुझे इस फरेबी दुनियाँ पे अब,
गुलाब बन जो मिला कांटे फिर चुभा के गया ।
यही तो होता आया है ।
हार्दिक आभार आदरणीय संगीता जी
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