Tuesday, October 26, 2021

मेरे हर सफ़ऱ में अगर तुम न होते

 

मेरे हर सफ़ऱ में अगर तुम न होते,
ग़मों में गुजरती खिजां रोते-रोते |

हैं दुश्मन मिरे इस जहां में बहुत अब,
समंदर-ए-वफ़ा में लगे थे जो गोते ।

यूँ लिखते हुए 'गम' कलम डगमगाए
थका हूँ मैं साहिल ये हुनर ढोते-ढोते |

पहर आखिरी जब शब्-ए-हिज्राँ बीती,
लुटे हम ख़ुदी में फ़लक होते-होते |

सितम ज़िन्दगी ने किये हैं मुसलसल,
मगर कर्मों को मैं थका धोते-धोते ।

.हर्ष महाजन 'हर्ष'

122 122 122 122

ख़ुदी=अहँकार


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