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शरीक-ए-मुहब्बत, शरीक-ए-सफर है,
ऐ जान-ए-तमन्ना तु मेरा ज़िगर है ।
अगर धूप देखी तो छाँवें भी देखीं,
मगर इक कशिश है ,वहां तू जिधर है ।
है तुझ पे गुमाँ पर, ये दिल पे निशाँ क्यूँ,
वो गर्दिश के दिन तो हुए दर-बदर हैं ।
यूँ फिकरों में दिन कटती अश्क़ों में रातें,
है कैसा सितम हर दवा बे-असर है ।
गज़ब मंज़िलें हैं, गज़ब हैं सदायें,
कि धड़कन पे तेरी ही मेरा सफर है ।
हो बस इक नज़र, हो चले इतमिनाँ फिर,
मचलने लगा जो, बता दिल किधर है ।
किसी शख्स को हो न हो दर्द जानाँ,
मेरे दिल के हुजरे पे इसका असर है ।
---------हर्ष महाजन
बहरे मुत्कारिब मुसम्मन सालिम
122 122 122 122
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