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क्युं अपने सभी याद आने लगे हैं,
दिया दुश्मनी का जलाने लगे हैं ।
वो चुपके से सर रख के काँधे पे उनके,
वफ़ा नफ़रतों की बढ़ाने लगे हैं ।
हवाओँ में फिर आँधियों सी ख़बर है,
वो आइनों पे पत्थर चलाने लगे हैं ।
ये कैसे मुसलसल वो ऑंसू थमेंगे,
यूँ अपनों के ऐसे निशाने लगे हैं ।
दिया जब बुझा देखकर उनके घर का,
ख़बर थी महल को सजाने लगे हैं ।
बस्ती में अपनी नए ज़ख्म देखो,
वो गैरों को अपना बताने लगे हैं ।
कहूँ काल उनको या कर्मों का लेखा,
चिता से दिए वो जलाने लगे हैं ।
नहीं फ़ायदा बंदगी का ख़ुदा की ,
हवाओं से पुल वो बनाने लगे हैं।
ज़ुबाँ ज़ह्र उगलेगी इतना पता था,
ये किरदार सच में निभाने लगे हैं ।
-----हर्ष महाजन 'हर्ष'
बहुत गहरी बातें ..
ReplyDeleteकविता रावत जी आपको ये रचना पसंद आई इसके लिए बहुत बहुत शुक्रिया ।
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ReplyDeleteआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" बुधवार 9 जून 2021 को साझा की गयी है.............. पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
Pammi singh ji मेरी ग़ज़ल को "पाँच लिंको का आनंद पर" पर रखने के लिए शुक्रिया ।
ReplyDeleteदिया जब बुझा देखकर उनके घर का,
ReplyDeleteख़बर थी महल को सजाने लगे हैं ।
कितनी नफरतें भला क्यों इस कदर याद आने लगे ।
हर शेर में एक तल्खी भारी हुई ।
संगीत जी
ReplyDeleteआज का स्वभाव ही बदल चुका है । तल्खी हावी है ।