ज़िन्दगी से मुझे कुछ गिला ही नहीं ,
जब सिवा रंजिशों के मिला ही नहीं ।
जब सिवा रंजिशों के मिला ही नहीं ।
दर्द हो कर जुदा उसने ऐसा दिया,
अर कहा इससे बढ़ कर सज़ा ही नहीं ।
चाह थी इश्क कर मैं फलक पे उडूँ,
इश्क़ पर मुझसे अब तक हुआ ही नहीं ।
मैं तड़प कर गिरा, वो नज़र से गिरा,
मैं तो उठ न सका, वो उठा ही नहीं ।
उसको बर्बाद कर दूँ थे मौके मगर,
पीठ पर मुझसे खंजर चला ही नहीं ।
हर्ष महाजन 'हर्ष'
212 212 212 212
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