Friday, July 1, 2016

गल्त-फ़हमी थीं बढीं औ फासले बढ़ते रहे

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गल्त-फ़हमी थीं बढीं औ फासले बढ़ते रहे,
हम मुहब्बत में वो लेकिन दुश्मनी करते रहे |

दिल तो था मजबूर लेकिन आँखे आब-ए-चश्म थीं,
पर कदम बढ़ते रहे उनके सितम चलते रहे |

हर सितम आईने सा उनका आँखों में यूँ छला,
हम भी पहलू में दिया बन जलते ओ बुझते रहे |

इश्क में खुद शूल बन वो सीने में चुभने लगा,
फिर यही गम ज़िंदगी में घुँघरू बन बजते रहे |

कैसे लिख दें दास्ताँ अपने ही लफ़्ज़ों में सनम,
गम समंदर हो चले वो दिल में जो पलते रहे |

हर्ष महाजन

आब-ए-चश्म = आंसू
बहरे रमल मुसम्मन महजूफ
2122-2122-2122-212

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