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लोग अपनों के हुनर पर फब्तियां कसने लगे,
आस्तीं में सांप थे कुछ बे-वजह डसने लगे |
क्या कोई समझेगा दह्शत से भरी इस ज़िन्द को,
हर तरफ दहशत-ज़दा अपनों में ही बसने लगे |
लोग अपनों के हुनर पर फब्तियां कसने लगे,
आस्तीं में सांप थे कुछ बे-वजह डसने लगे |
उन गुनाहों का सफ़र कैसे चले जो सर न
हों,
जुर्म करता वो
मज़े में बे-कसूर फसने लगे |
आजकल माहौल जीने का कहाँ शहरों में
अब,
देख लुटती अस्मतें अब शहरिये हंसने लगे |
देख लुटती अस्मतें अब शहरिये हंसने लगे |
जो खिलाफत ज़ुल्म
की करता बुलंद आवाज़ में,
इक शिकंजा उनपे रक्षक बे-सबब कसने लगे |
इक शिकंजा उनपे रक्षक बे-सबब कसने लगे |
क्या कोई समझेगा दह्शत से भरी इस ज़िन्द को,
हर तरफ दहशत-ज़दा अपनों में ही बसने लगे |
हर्ष महाजन
०००
2122
2122 2122 212
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