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बहका रहीं हैं उनकी अदाएँ तो क्या करें,
होने लगीं हैं हमसे खताएँ तो क्या करें ।
रुक-रुक के चल रहीं हैं समंदर में कश्तियाँ,
तूफाँ सी चल रहीं हैं हवाएँ तो क्या करें ।
मरने लगे गरीब यूँ ही अस्पताल में,
जब खत्म हो चुकी हों दवाएँ तो क्या करें ।
इतने मिले हैं ज़ख्म कि दिल छलनी हो गया,
काम आएँ न किसी की दुआएँ तो क्या करें ।
मिलजुल के हमने जितने किये आज तक सफर,
'अब मुस्करा के भूल न जाएँ तो क्या करें ।'
दुश्मन के घर भी जल रहे गर दोस्त के दीये,
यूँ भी बदल रहीं हों फ़ज़ाएँ तो क्या करें ।
हर्ष महाजन
221 2121 1212 212
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