आसतीं में सांप है अब जाने कितने,
हम रहे बेख़ौफ़ यूँ बेगाने कितने ।
अपने ही हमराज अब समझाने निकले,
चोट खाके भी हैं हम अनजाने कितने ।
नफ़रतों के साये में हम तन्हा तन्हा,
रिश्ते लगते हो गए वीराने कितने ।
साजिशों को हादसा समझा किये हम,
बन गए अनजाने में अनजाने कितने ।
पर्दा सरका आँख से जब हरसु जानिब,
टूटे सब रिश्ते बने अफसाने कितने ।
रौशनी जब मांग ली जलते दियों से,
वो बहाने यूँ लगे बरसाने कितने ।
हर्ष महाजन 'हर्ष'
2122 2122 2122
"छोड़ दो आँचल ज़माना क्या कहेगा"
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