Sunday, April 10, 2016

इतनी करो भी हमसे शरारत न यूँ कभी



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इतनी करो भी हमसे शरारत न यूँ कभी,
आँखों से उठ ही जाए शराफत न यूं कभी |
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देखे, जो चांदनी में, नहाया तिरा बदन,
हो जाए अब शहर में बगावत न यूं कभी |
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वो चाँद जब फलक से कभी इस तरह झुके,
देखी है इस तरह की, इबादत न यूं कभी |
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आओ, चलें चमन से, कहीं दूर, गुलबदन,
ये चाँदनी, करे वो, खिलाफत न यूं कभी |
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चर्चे तिरे, शहर में, जफाओं के, इस तरह,
लगने लगे ये दिल में अदालत न यूं कभी |
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हर्ष महाजन

221 2121 1221 212

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