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हिन्द की दहलीज़ पर ऐसी फ़िज़ा रख जाऊँगा,
मज़हबी खुश्बु से महकी इक वफ़ा रख जाऊंगा ।
सरहदों से आ रहे जो बीज नफ़रत के मगर,
मरक़ज़ों में मैं फ़िज़ाओं की हवा रख जाऊँगा ।
कौन जाने किस घड़ी खो जाए अब किसका सफ़र,
हर डगर पे मैं मुहब्बत का दिया रख जाऊँगा ।
गर यकीं तुमको निगाहें ग़ैर सी रखतें है तो,
आने वाली नस्ल पर इक हादसा रख जाऊँगा ।
रंग गर दरिया-दिली से बन्दग़ी का चढ़ गया,
टूटकर भी हर तरफ मैं इक नशा रख जाऊँगा ।
हादसों में बस्तियाँ गर नफ़रतों से भर गयीं,
रख यकीं मैं जंग का मक़सद नया रख जाऊँगा ।
-हर्ष महाजन 'हर्ष'
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