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बिना साज़ जो भी सजेगी ग़ज़ल,
वो धड़कन की धुन पे चलेगी ग़ज़ल ।
उठेगी कभी दिल से लब तक कभी,
यकीनन ज़ुबाँ पे सजेगी ग़ज़ल ।
अगर सांचे में ढ़ल न पाएँगे लफ्ज़,
तो बन के सज़ा वो खलेगी ग़ज़ल ।
चमन गर न बदला न बदली फ़िज़ा,
अंधेरों में खुद ही बनेगी ग़ज़ल ।
अगर ग़म समंदर हुआ अश्क़ों का
तो दिल में सुलगकर जलेगी ग़ज़ल ।
कभी होगा आँखोँ से दिल तक सफर,
वही 'हर्ष' तुझको फलेगी ग़ज़ल ।
हर्ष महाजन 'हर्ष'
122 122 122 12(22)
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