...
सभी इस क़ज़ा* में रज़ा* हो गए ।
मगर कुछ नमाज़ी ज़ुदा हो गए ।
मुहब्बत में हम किसी से कम तो नहीं,
मगर सरफिरे कुछ ख़फ़ा हो गए ।
जहाँ फ़ासलों पर अमल न हुआ,
वहाँ कुछ बशर* ग़मज़दा हो गए ।
जिन्हें मान अपना निभाते रहे,
वही हमवतन अब ख़ुदा हो गए ।
सियासत कहीं बेअसर तो नहीं ?
हैं कुछ शह्र में बा-ख़ता हो गए ।
यूँ सीने में अहसास जिनके नहीं,
हमारे लिए वो सज़ा हो गए ।
ख़तावार को गर सज़ा न हुई,
तो हम बे-ख़ता बे-हया हो गए ।
चलो मिट चलें अब अमन के लिये,
सभी हमनफस*, हमनवा* हो गए ।
ख़ुदा हमको ऐसी ख़ुदाई न दे,
जहाँ हुक्मरां ही सज़ा हो गए ।
------हर्ष महाजन 'हर्ष'
122 122 122 12
तुम्हारी नज़र क्यूँ खफा हो गयी ।
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*क़ज़ा=कर्तव्यपालनता
रज़ा=राज़ी होना
बशर=आदमी
हमनफस=एक साथ सांस लेने वाले ।
हमनवा=एक साथ आवाज देने वाले
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