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क्युं अपने सभी याद आने लगे हैं,
दिया दुश्मनी का जलाने लगे हैं ।
वो चुपके से सर रख के काँधे पे उनके,
वफ़ा नफ़रतों की बढ़ाने लगे हैं ।
हवाओँ में फिर आँधियों सी ख़बर है,
वो आइनों पे पत्थर चलाने लगे हैं ।
ये कैसे मुसलसल वो ऑंसू थमेंगे,
यूँ अपनों के ऐसे निशाने लगे हैं ।
दिया जब बुझा देखकर उनके घर का,
ख़बर थी महल को सजाने लगे हैं ।
बस्ती में अपनी नए ज़ख्म देखो,
वो गैरों को अपना बताने लगे हैं ।
कहूँ काल उनको या कर्मों का लेखा,
चिता से दिए वो जलाने लगे हैं ।
नहीं फ़ायदा बंदगी का ख़ुदा की ,
हवाओं से पुल वो बनाने लगे हैं।
ज़ुबाँ ज़ह्र उगलेगी इतना पता था,
ये किरदार सच में निभाने लगे हैं ।
-----हर्ष महाजन 'हर्ष'