मेरे हर सफ़ऱ में अगर तुम न होते,
ग़मों में गुजरती खिजां रोते-रोते |
हैं दुश्मन मिरे इस जहां में बहुत अब,
समंदर-ए-वफ़ा में लगे थे जो गोते ।
यूँ लिखते हुए 'गम' कलम डगमगाए
थका हूँ मैं साहिल ये हुनर ढोते-ढोते |
पहर आखिरी जब शब्-ए-हिज्राँ बीती,
लुटे हम ख़ुदी में फ़लक होते-होते |
सितम ज़िन्दगी ने किये हैं मुसलसल,
मगर कर्मों को मैं थका धोते-धोते ।
.हर्ष महाजन 'हर्ष'
ख़ुदी=अहँकार