ग़ज़ल एक छंद काव्य है | एक लम्बा सफ़र तय कर आजकल ये जिस मुकाम पर है इसने अपने अंदर उर्दू और हिन्दी दोनों भाषाओँ को सम्मिलित किया है | अपने सफ़र में नज़ाकत और नफ़ासत के कई तेवर बदलती हुई प्रस्तुत ग़ज़लें अपने बनाव और श्रृंगार में कई जगह शराब और शबाब में मदहोश नज़र आती है और फिर कई जगह गम से लबरेज़ तथा खुद अहसासों का चित्रण ब्यान करती हैं | अल्फास तो खुद दास्ताँ बन ग़ज़ल का सत बयाँ कर देते हैं | आम आदमी से जुड़ी और मानवीय संवेदनाओं से भरपूर मेरी कलम से निकली पसंदीदा कुछ ग़ज़लें |
Sunday, February 27, 2022
न जाने मुझको वो क्यूँ तलखियाँ दिखा के गया
Friday, February 25, 2022
दगा दिया था अपनों ने यही मुझे मलाल था
Wednesday, February 23, 2022
लफ्ज़ दे जाते हैं जो ज़ख़्म दिखाएँ कैसे,
Tuesday, February 22, 2022
उठ के महफ़िल से चला उसने मनाया भी नहीं
Saturday, February 19, 2022
जाने अखियों से छलकते अश्क क्यूँ उस याद में
ग़ज़ल
जाने अखियों से छलकते अश्क क्यूँ उस याद में,
जिसने तडपाया मुझे जलती हुई इक आग में |
बेसबब ग़म आह बन निकलेगी उसके लहजे से,
दिल धड़कता पर रहेगा आस रख फ़रियाद में |
जिस्म से ज्यूँ रूह निकले होता क्या पूछो मुझे,
आरज़ू उसके मिलन की ज्यूँ रहे जब ख़्वाब में |
ज़ुल्फ़ दिल पे यूँ है काबिज़ भूल कर भूला नहीं,
चल रहा जिसका नशा देखो अभी भी शराब में |
जिन हवाओं में कयामत अब तलक देखी न थी,
वो अदा इन आँखों ने देखी थी उनके शबाब में ।
हर्ष महाजन 'हर्ष'
Monday, February 7, 2022
रूठी है ज़िन्दगी तो मुक़द्दर बदल गए
ग़ज़ल
रूठी है ज़िन्दगी तो मुक़द्दर बदल गए ,
दुनियाँ के भी हों जैसे ये तेवर बदल गए ।
दीवार-ओ-दर में खुश था जहाँ तुम थे साथ पर,
कब नींव के न जाने ये पत्थर बदल गए ।
जिनके भी साये में रहे हम उम्र भर जहाँ,
अब क्यूँ सभी शज़र वो वहॉं पर बदल गए ।
रक्खा किये थे जिनको यूँ शानों पे हर जगह,
दिल के करीब शख्स वो अंदर बदल गए ।
रिश्तों में रक्खा बैर सदा उसने इस तरह,
नदियों में बंट के फिर वो समंदर बदल गए ।
हर्ष महाजन 'हर्ष'
221 2121 1221 212
●मिलती है ज़िन्दगी में मुहब्बत कभी कभी
●पहले तो अपने दिल की रजा जान जाइए |
Saturday, February 5, 2022
पतझड़ हुई तो टिक न सका शाख पे लेकिन
Wednesday, February 2, 2022
हवा आज कुछ ठीक होगी तो जाने
ग़ज़ल
हवा आज कुछ ठीक होगी तो जाने,
बहुत बदले हैं हमने अपने ठिकाने ।
यूँ ख़्वाबों की अपने तो परवाज होगी,
लगे थे जो सदमात उनको भुलाने ।
सदाकत भी भूले रफ़ाक़त भी भूले,
सभी भूलें हैं हम पुराने जमाने ।
कभी हादसों में हुआ इश्क़ लेकिन,
मिलेंगे तड़प कर गले अब लगाने ।
कभी होगी पतझड़ कभी फिर बहारें,
मुहब्बत में रिश्ते सभी हैं निभाने ।
फ़क़त हम अज़ीयत में जीये अभी तक,
चलो अब उजालों अँधेरा छुपाने ।
हुई शादमानी मिला हमसफ़र जो,
मुहब्बत चली अब हमें आजमाने ।
हर्ष महाजन 'हर्ष'
122 122 122 122
★★★
सदमात= गम ही गम
परवाज़=उड़ान
सदाकत=सच्चाई
रफाकत=मेलजोल
अज़ीयत= तकलीफें
शादमानी= खुशी, प्रसन्नता
★★★★★