पतझड़ हुई तो टिक न सका शाख पे लेकिन,
कमज़ोर नहीं था पत्ता वो बुनियाद से लेकिन ।
आँखों से गिरा अश्क़ जो दामन में खो गया,
वो मिट तो गया जान-ए-वफ़ा शान पे लेकिन ।
महका रहा था रोज शज़र को था मगर वो,
पतझड़ हुई तो छोड़ा उसी पेड़ ने लेकिन ।
क्या सोच के था चुन लिया यूँ भीड़ में मुझको,
पत्ते तो हरे लाखों थे उस पेड़ के लेकिन ।
जब डोलियों में बैठ चलें बेटियाँ अपनी,
घर-घर तो रहे पर रहे वीरानी में लेकिन ।
हर्ष महाजन 'हर्ष'
221 1221 1221 122
इस बहर पर कुछ गीत देखिये और इनमें किसी भी धुन पर मेरी ग़ज़ल गुनगुनाइयेगा
● दुनिया में जब आए हैं तो जीना ही पड़ेगा
● ये शाम की तन्हाईयाँ ऐसे में तेरा गम
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