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आपसी रिश्तों में इतना जाने क्यूँ अब ज़ह्र है,
कुछ हुए क़ातिल ज़ुबाँ से कुछ में थोड़ी खैर है ।
हमने डरते डरते कह दी इक ग़ज़ल अपनों में फिर,
देखते ही देखते हर शख़्स लगता ग़ैर है ।
बड़ रही हर क़ौम में अब दुश्मनों की हलचलें,
कोई टूटे या न टूटे, टूटता ये शह्र है ।
कहता हूँ ग़ज़लों में अपनी रिश्तों की तासीर भी,
बोल जितने हैं ज़रूरी उतनी इसकी बह्र है ।
बिक़ता है इंसाफ अब तो हर जगह मक्कारी है,
अब सियासत भी फ़लक पे हर ज़ुबाँ पे ज़ह्र है ।
बे-वजह कुछ अपने छूटे मज़हबी इस दाव में,
ये हक़ीक़त जानकर भी ये सियासी बैर है ।
राज़-ए-उल्फ़त को बताना ये भी मेरा फ़र्ज़ था,
अपना तो अपना रहेगा ग़ैर फिर भी ग़ैर है ।
----हर्ष महाजन 'हर्ष'
2122 2122 2122 212
"दिल लगाकर हम ये समझे ज़िन्दगी क्या चीज़ है"
हर शेर लाजवाब,बहुत कुछ कह गई आपकी ये उम्दा गजल ।
ReplyDeleteजिज्ञासा जी,
Deleteज़र्रानवाज़ी का तहे दिल से शुक्रिया ।
सादर
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" गुरुवार 17 जून 2021 को साझा की गयी है.............. पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteदिग्विजय जी आपका धन्यवाद आपने मेरी इस गज़ल को पांच लिंको का आनंद पर स्थान दिया ।
Deleteसादर
"देखते ही देखते हर शख़्स लगता ग़ैर है ।" - दुनिया-समाज की कटु सच्चाई ..
ReplyDelete( बाक़ी "बह्र" वग़ैरह के मामले में तो हम अज्ञानी ही हैं ):)
सुबोध सिन्हा जी आपकी आमद और पसंदगी के लिए आपका बहुत बहुत शुक्रिया ।
Deleteऐसे ही आते रहेंगे तो बह्र का भी ज्ञान हो ही जायेगा ।
चर्चा से सब संभव है ।
सादर
सादर
बहुत ही उत्कृष्ट ।
ReplyDeleteZarranawazi ka bahut bahut shukriya
ReplyDeleteअच्छी रचना...।
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया संदीप कुमार शर्मा जी ।
Deleteअपनो से ले कर सियासत तक की बात वाह क्या बात है ।
ReplyDeleteबड़ रही हर क़ौम में अब दुश्मनों की हलचलें,
कोई टूटे या न टूटे, टूटता ये शह्र है ।
कहता हूँ ग़ज़लों में अपनी रिश्तों की तासीर भी,
बोल जितने हैं ज़रूरी उतनी इसकी बह्र है ।
दोनो शेर गज़ब ।
संगीता स्वरूप जी आपकी पारखी नज़र ने अशआर की गहराई को पकड़ उसके सैट को बयां कर ही दिया । दाद के लिए बेहद शुक्रिया । यूँ आते रहिये बलाग की रौनक को बरकरार रखियेगा ।
Deleteसादर