...
जो दिल्ली को मैयत बनाने लगे,
वो मरकज़ में महफ़िल सजाने लगे ।
वो कैसी थी मस्ज़िद थी कैसी दुकाँ,
जहां लौ से लौ वो जलाने लगे ।
हकीकत परखने को राजी न थे,
वो पतझड़ सा खुद को गिराने लगे ।
हुए रूबरू तो मिले कुछ निशाँ,
बिना जंग लाशें बिछाने लगे ।
ज़नाजे बहुत निकलेंगे अब यहाँ,
हवा के थपेड़े बताने लगे ।
---------हर्ष महाजन 'हर्ष'
122 122 122 12
बहारों ने मेरा चमन लूट कर
No comments:
Post a Comment