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रुख़ से पर्दा उठा के देख लिया,
बिजली दिल पे गिरा के देख लिया ।
घुटनों के बल जो चल सकूँ खुद ही,
उसने आंगन बना के देख लिया ।
टूटकर भी वो ज़िद्द पे था काबिज़,
ख़ुद को अश्कों में ला के देख लिया ।
रौशनी फिर भी हो सकी न कभी,
दिल को दीया बना के देख लिया ।
उनका दिल से निकलना था वाज़िब ,
ये भी दिल को सुना के देख लिया ।
होगा मिलने से कुछ नहीं हासिल
*बा रहा आज़मा के देख लिया ।*
ज़ुल्फ़ें रूख़ पे गिरीं थी यूँ शायद,
चाँद उनमें छुपा के देख लिया ।
कद्र जो कर सका बशर न कोई,
ऐसी दुनिया बसा के देख लिया ।
ज़ख्म दिल के सभी उभर आए
खुद ही पर्दा हटा के देख लिया ।
हर्ष महाजन 'हर्ष'
2122 1212 22(112)
बा-रहा=प्राय:
2122 1212 22(112)
बा-रहा=प्राय:
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