Friday, April 24, 2020

मेरे यकीं को न नजरों से तुम गिरा देना


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मेरे यकीं को न नजरों से तुम गिरा देना,
कोई भी जुर्म अगर है तो फिर सज़ा देना ।

मैदान-ए-इश्क़ में तुझ सा कोई करीब नहीं,
करूँ बुरा भी कभी थोड़ा सा मुस्करा देना ।

मैं उन दिलों में भी धड़का हूँ जो पसंद नहीं,
ये कैसी आग है उलफ़त में तू बुझा देना ।

मेरी ग़ज़ल में कभी तुम भी बात अपनी करो,
रखूँगा मतले में तुझको मुझे बता देना ।

तड़प तड़प के ये दिल जाने कब तमाम हुआ,
तो क्या लिखा है मुक़द्दर में तुम सुना देना ।

कभी तुझे यूँ लगे अश्क़ चश्म पर भारी,
तो फिर नसीब के वो अश्क़ दो गिरा देना ।

सज़ा मिली है बहुत कुछ गुनाह औऱ मगर,
बिछुड़ के रोया बहुत और मत सज़ा देना ।

हर्ष महाजन 'हर्ष'
1212 1122 1212 112(22)


24-04-2020

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