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मत सोच हम भी खेल में हारे नहीं हुए,
बस इतना फ़र्क है कि किनारे नहीं हुए ।
उनकी निग़ाहें नाज़ का मारा नहीं मग़र,
तहज़ीब इतनी थी कि इशारे नहीं हुए ।
ख़्वाहिश थी आके ख़ुद वो रिझा ले मुझे मग़र,
ख़त लिख के कह दिया कि तुम्हारे नहीं हुए ।
औरों के रंज ओ ग़म दिए उसने अगर मुझे,
फिर उनके क्यूँ नसीब हमारे नहीं हुए ।
हर शख्स चाहने लगा था इस कदर मुझे,
पर ज़िंदगी में वो भी सहारे नहीं हुए ।
-----हर्ष महाजन 'हर्ष'
बहर:-
221 2121 1221 212
मिलती है ज़िन्दगी में मुहब्बत कभी कभी
मत सोच हम भी खेल में हारे नहीं हुए,
बस इतना फ़र्क है कि किनारे नहीं हुए ।
उनकी निग़ाहें नाज़ का मारा नहीं मग़र,
तहज़ीब इतनी थी कि इशारे नहीं हुए ।
ख़्वाहिश थी आके ख़ुद वो रिझा ले मुझे मग़र,
ख़त लिख के कह दिया कि तुम्हारे नहीं हुए ।
औरों के रंज ओ ग़म दिए उसने अगर मुझे,
फिर उनके क्यूँ नसीब हमारे नहीं हुए ।
हर शख्स चाहने लगा था इस कदर मुझे,
पर ज़िंदगी में वो भी सहारे नहीं हुए ।
-----हर्ष महाजन 'हर्ष'
बहर:-
221 2121 1221 212
मिलती है ज़िन्दगी में मुहब्बत कभी कभी
जी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार(२० -०६-२०२०) को 'ख्वाहिशो को रास्ता दूँ' (चर्चा अंक-३७३८) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है
--
अनीता सैनी
बहुत बहुत शुक्रिया मेरी कृति को चर्चा में शामिल करने के लिए ।
Deleteसादर
सुन्दर
ReplyDeleteमुहब्बतों के लिए शुक्रिया ।
Deleteहर शख्स चाहने लगा था इस कदर मुझे,
ReplyDeleteबढ़िया
आपकी पसंदगी के लिए तहे दिल से शुक्रिया हिन्दीगुरु जी ।
Deleteसादर
बहुत बढ़िया
ReplyDeleteबेहद शुक्रिया आपका ।
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