Friday, June 17, 2016

जुबां पर अभी था .... न जाने किधर है



जुबां पर अभी था .... न जाने किधर है,
वो लफ्ज़-ए-मुहब्बत .हुआ दर-बदर हैं |.

उधर तू भी चुप है इधर मैं भी चुप हूँ,
ऐ दिल दोस्ती में......ये कैसा सफ़र है |

न रिश्ता कोई अब.....दिया है न बाती,
मगर जल रहा जो...वो किसका हुनर है |

मिले जब कभी दिल ये धड़का न लेकिन,
ये नज़रें क्यूँ अपनी इधर या उधर हैं ।

कभी आंसुओं में कभी दर्द बनकर,
ये कैसी मुहब्बत ये कैसा जिगर है ।

कभी बनते दरिया कभी बन समंदर,
मुहब्बत का देखो मुकम्मिल असर है ।

कभी साँसों में हूँ कभी धड़कनों में,
जहाँ ज़िक्र तेरा वहीं मेरा घर है ।

हर्ष महाजन 'हर्ष'


मुताक़रीब मुसम्मन सालिम
122 122 122 122

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