जुबां पर अभी था .... न जाने किधर है,
वो लफ्ज़-ए-मुहब्बत .हुआ दर-बदर हैं |.
उधर तू भी चुप है इधर मैं भी चुप हूँ,
ऐ दिल दोस्ती में......ये कैसा सफ़र है |
न रिश्ता कोई अब.....दिया है न बाती,
मगर जल रहा जो...वो किसका हुनर है |
मिले जब कभी दिल ये धड़का न लेकिन,
ये नज़रें क्यूँ अपनी इधर या उधर हैं ।
कभी आंसुओं में कभी दर्द बनकर,
ये कैसी मुहब्बत ये कैसा जिगर है ।
कभी बनते दरिया कभी बन समंदर,
मुहब्बत का देखो मुकम्मिल असर है ।
कभी साँसों में हूँ कभी धड़कनों में,
जहाँ ज़िक्र तेरा वहीं मेरा घर है ।
हर्ष महाजन 'हर्ष'
मुताक़रीब मुसम्मन सालिम
122 122 122 122
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