जब से हुई है तुमसे मुलाकात शाम की,
पढ़ता हूँ अब मैं गज़लें फ़क़त तेरे नाम की ।
शोहरत को दी न मैनें तवज़्ज़ो भी आज तक ,
चाही फ़क़त ज़रा सी मुहब्बत कलाम की ।
नफ़रत से हो रहे हैं ज़रर रिश्तों में भी अब,
उल्फ़त की रह गयी है ये तस्वीर नाम की ।
पलकों में कैसे जज़्ब करूँ अश्क़ ऐ खुदा,
यादें रहीं न काबू फ़क़त इक वो शाम की ।
रिश्तों में आ चुकी थीं दरारें भी इस तरह
होती नहीं है शाम बिना कोई जाम की ।
हर्ष महाजन 'हर्ष'
221 2121 1221 212
17 जनवरी 22
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ज़रर=नुकसान
जज़्ब= सोख
शोहरत को दी न मैनें तवज़्ज़ो भी आज तक ,
ReplyDeleteचाही फ़क़त ज़रा सी मुहब्बत कलाम की ।
..हर शेर लाजवाब.. बेहतरीन गजल ।
ज़र्रानावाज़ी का तहे दिल से शुक्रिया आपका आदरनीय जिज्ञासा जी । उम्मीद करता हूँ आपकी प्रतिक्रिया मुसलसल मिलती रहेगी ।
Deleteसादर
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सादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (18-1-22) को "दीप तुम कब तक जलोगे ?" (चर्चा अंक 4313)पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है..आप की उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी .
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कामिनी सिन्हा
बहुत बहुत शुक्रिया आपका आदरनीय ।
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया, आपको ये पेशकश पसंद आई और लिंक चर्चा में शामिल करने हेतु सच कहूं तो ये आपकी दरियादिली औऱ ऊपर वाले का कर्म है आदरनीय कानी जी ।💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐💐
ReplyDeleteबहुत सुंदर गजल।
ReplyDeleteबेहद शुकृया व आभार ज्योति जी ।
Deleteबहुत खूब।
ReplyDeleteपसंदंगी के लिए बहुत वहुत धन्यवाद नीतीश जी ।
Deleteवाह बहुत खूबसूरत ग़ज़ल ,पढ़कर आनंद आ गया।
ReplyDeleteदिली शुक्रिया आदरनीय अभिलाशा जी ।
ReplyDeleteवाह!सराहनीय।
ReplyDeleteसादर
ज़र्रानावाज़ी का तहे दिल से शुक्रिया आपका अनीता सैनी जी । उम्मीद करता हूँ आपकी प्रतिक्रिया मुसलसल मिलती रहेगी ।
Deleteसादर
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