चाँद जब तक फलक पर नुमाया नहीं,
रुख से जुल्फों को उसने हटाया नहीं ।
रुख से जुल्फों को उसने हटाया नहीं ।
उसको अहसास था मेरे ज़ख़्मों का पर,
अश्क़ पत्थर ने इक भी बहाया नहीं ।
मुफ़लिसी रिश्तों में बढ़ गयी इस कदर,
दिल धड़कता रहा पर बताया नहीं ।
मेरी नज़्मों ने उसको पुकारा बहुत,
थी कसक उसको भी पर रुलाया नहीं ।
सर झुका के मिला था मैं उसको मगर,
क्यूँ उठा के वो खंजर चलाया नहीं ।
अर्थी मेरी चली अर्थी उसकी चली,
पर्दा फिर भी किसी ने उठाया नहीं ।
दर्द सह कर भी इतना रहम दिल था 'हर्ष'
दिल दिया भी मगर दिल लगाया नहीं।
हर्ष कुमार 'हर्ष'
212 212 212 212
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